शल्य चिकित्सा आज जीवन बचाने के लिये बेहद कारगर साबित हो रही है। यदि पूर्व समय की बात की जाये तो भारत में शल्य चिकित्सा (सर्जरी) का चरम विकास आज से लगभग 5 हजार वर्ष पूर्व सुश्रुत काल में मिलता है। काशी के राजा दिवोदास शल्यक्रिया के सफल चिकित्सक थे। वर्तमान काल में उनके अनुयायी योगरत्नाकर ने सुश्रुत के आधार पर लिखा हैं कि वातपित्त कफादि दोष विगुण होकर (घट-बढकर) रस (रक्त में स्थित रक्त कणों के अतिरिक्त जो कुछ हैं) को दूषित कर के हृदय में जाकर रूकावट उत्पन्न करते हैं। अर्थांत हृदय को रक्त प्रदान करने में बाधा डालते हैं। यह सत्य है कि, सुश्रुतकाल में शल्यक्रिया के उपकरण आज के समान सूक्ष्म और कारगर नहीं थे। एनस्थेशिया भी आज जैसा विकसित नहीं था अतः हृदय की धमनियों की शल्य क्रिया प्रायरू नही होती थी। परंतु अनुभव के आधार पर और आयुर्वेद के विद्वानों के मत से यह कहा जा सकता है कि शल्यक्रिया की आवश्यकता ही नहीं थी। इसी विचारधारा की पुष्टि के लिए भावमिश्र महाराजा रणजीतसिंह कालीन प्रसिद्ध विद्वान ने लिखा हैं कि - कफप्रधान वातादी दोष रस के स्त्रोत धमनियों को अवरूद्ध कर सभी धातुओं को क्षय कर देते हैं। अर्थात हृदय के उस भाग को जिसे यह धमनियां रक्त पहुंचाती हैं - निष्क्रिय कर देती हैं। शल्य क्रिया की आवश्यकता से बचा जा सके उसके लिए 3 औषधियां प्रमुख हैं - शिलाजीत, अर्जुन और बला। इनका सेवन कम से कम एक वर्ष करने से अच्छा परिणाम मिलता है। वैसे तो इनका सेवन अजीवन भी कर सकते हैं उससे कोई हानि नहीं होगी। लाभ ही मिलेगा।