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गुलाब की पंखुडी

गुलाब की पंखुडी
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कई शामों बाद गुलाब मां गलियारे में आई, मैं बालकॉनी में चाय की प्याली लिए बारिश देख रहा था और वह बिजली बन कर मेरे चौराहे पर थी। आज से 10 मौसम पहले मैं घर से उनके गुलाब चुरा कर भागा था बहुत फटकार लगाई थी तब अम्मा ने, पर गुलाब मां ने बचा लिया, वह सिर्फ फूल की व्यापारी नहीं शायद मुस्कुराहटों की भी थी। पता नहीं क्या समय है यह, कभी अम्मा उनके उधर दासी थी और आज चौराहे पर वही गुलाब मां गुलाब की पंखुड़ियां बेच रही हैं। मैं उन्हें उस गरम चाय की भाप से चश्मे पर पड़ी धुंध के बीच से पहचान गया पर ना जाने क्यों उनसे कुछ बतिया ने का जी किया, शायद मुझे मेरी महफूज़ होने पर नाज़ था, या शायद उन्हें इतने दिन बाद देख कर अफसोस। अफसोस जिनके घर कई गुलाबों की पंखुड़ियां पैरों तले रौंदा दी जाती थी अजनबीयों से, आज वही एक पंखुड़ी की कीमत क्यों मांग रही है वह? अपने चंचल मन को शांत करने छाता लेकर पहुंचा मैं नीचे, जी मचल रहा था और काफी घबराया था, सोच रहा था क्या बताऊं अपनी पहचान, क्या वह पहचानेंगे या नहीं! इस भरे दिमाग से मैं जैसे वहां पर पहुंचा तब गुलाब मां उसी महकती मुस्कुराहट से बोली, "अरे! शांतनु! तुम"

आज भी चुराने आए हो या कीमत चुकाओगे? मैं शर्मिंदा उन्हें देखता रहा और फिर मानो बच्चा ही बन गया मुझे मेरा बचपन फिर से अपने सामने दिखने लगा और मैं बोल पड़ा, " गुलाब मां आप, आप यहां कैसे?, यह कैसे हालात हैं?, आप यह सब!" (मैं हकलाते हुए बोला, मुझसे उनकी हालत पर आश्चर्य और उनके लिए सहानभूति दोनों थी) मैं इतना बोला ही था कि गुलाब मां ने टोक कर कहा, "बेटा पौधों पर फल और कांटे दोनों आते हैं, कांटे कठोर होकर भी पौधों की रक्षा करते हैं, लेकिन फल अगर एक भी खराब हो तो वह पूरी सिंचाई और पेड़ दोनों खराब कर जाते हैं" बस हाथ फैलाने से अच्छा यह सोचा की व्यापार फिर से करना शुरू कर दूं, खैर मेरी छोड़ो तुम बताओ अम्मा कहां है? उनके इस प्रश्न ने मानो मेरे भोले दिखते चेहरे को सच मान लिया हो मैं भी वही खराब फल था, मां को वृद्ध आश्रम में छोड़े साल बीत गया था पर कभी उनसे हाल ही नहीं पूछा, ना कभी फोन किया ना चिट्ठी का जवाब दिया हमेशा काम के बहाने टालता रहा, धीरे-धीरे मां ने भी मन पढ़ लिया और खुद ही सब बंद कर दिया, ऐसा नहीं कि मैं उनसे प्यार नहीं करता पर परिवार की तरफ जिम्मेदारियों ने भी मुझे घेरा था, यह बोलते भी अब मुझे हंसी आ रही है मैं भी उनका परिवार ही था या शायद हूं, पर अब गुलाब मां से क्या कहूं कुछ समझ नहीं आ रहा था। मेंने मन ही मन मैं संकोच दबाकर कहने की कोशिश की, "वो गुलाब मां!", मैं बोलने ही वाला था कि गुलाब मा ने फिर टोक दिया, और बोल पड़ी बेटा गीता मेरे ही वृद्ध आश्रम में है मैं सब जानती हूं बस इधर आज अचानक आना इत्तेफाक नहीं गीता पिछले महीने गुजर गई तुम्हें बहुत याद करती थी तुम्हारी कई चिट्ठियों का इंतजार भी किया तुम्हारा हर बार यह लिखना कि तुम उसे ले जाओगे उसे सच लगता था पर फिर वह गुज़र गई बस मैं तुम्हें यही बताने आई थी, क्रिया कर्म के लिए तुम आ जाना बस इतना कर देना। बारिश में आंसू भी छुप गए और बिजली की आवाज़ में मेरी आवाज भी दब गई, कहते हैं जब मौत नजदीक हो तो बचपन से लेकर मरने तक का पूरा सफर आंखों के सामने एक चित्रपट बना जाता है मुझे मां का तो नहीं पता पर मेरे सामने अभी बनने लगा था मुझे वह सारी बातें याद आने लगी थी जो उन्होंने मेरे लिए की जो मैं उनके लिए ना कर सका जो चाहती थी मैं उनके लिए करूं और जो मैं चाह कर भी ना कर पाया, आज मां की गोद याद आ रही थी और उनकी चिट्ठी भी उन्हें जवाब नहीं देना भी याद आया और सारे बहाने भी। अचानक पैरों और हाथों के बीच का फर्क नहीं समझ आ रहा था मानव सुन्न पड़ गए हो और उठा मैं आह के साथ उसी बिजली की आवाज से। समय देखा तो सुबह के 5:00 बजे थे यह पहला सपना पहली बार मैं नहीं चाहता था कि सच हो और तुरंत डर से मैंने वृद्ध आश्रम फोन किया कई कोशिशों बाद मैनेजर ने फोन उठाया और फिर मैं बोला,"हेलो कौन बोल रहे हैं?" मैं घबराया सा बोला, "जी में, वो में शांतनु! बालेशोर से, गीता नायक का बेटा, मां कैसी हैं?,सब ठीक है ना? मैं उन्हें आज ही लेने आ रहा हूं आप तैयारी रखें"। यह कहकर इससे पहले कि मैनेजर को मौका मिले मैंने फोन काट दिया और इस सोच में पड़ गया कि क्यों अचानक गुलाब मां मुझे नजर आई क्यों आज मुझे अचानक यह सपना आया क्या अंदेशा था इसका कुछ समझ नहीं आ रहा था मैं बार-बार रास्ते की तरफ देख रहा था सोच रहा था की वृद्ध आश्रम कब आएगा गाड़ी भी धीमी गति से नहीं चला पाया इसी चक्कर में मैंने कई सिग्नल भी तोड़े पर आज हर चीज के डर के ऊपर एक डर था कि बस मैं ठीक हूं सोच लिया था कि बस यह भी मेरा परिवार है मैं उनके साथ कैसे कर सकता हूं या मैंने ऐसा कैसे किया, इस सब गहरी सोच के बीच मैं करीब 7:00 बजे वृद्धाश्रम पहुंचा तो देखा उधर शोक सभा चल रही थी, गेट पर बाहर बड़े बोर्ड पर लिखा था, सूचना अंकित किया जाता है की स्वर्गीय गीता नायक के लिए आज शोक समारोह है" मैं बिलख कर रोने लगा, खुद को माफ़ नहीं कर पाया, मैनेजर ने मुझे देखा और मेरी हालत देखकर समझ गया कि मैं वही कामकाजी बेटा हूं जो समय रहते कभी मिलने नहीं आया जिसके पास समय होकर भी समय नहीं था जिसके पास घूमने का वक्त तो था बस मां के लिए वक्त नहीं था जिसके लिए किसी नई इंसान के लिए वक्त था पर मां की जिम्मेदारी के लिए नहीं उन्होंने पास आकर मुझसे कहा,"तुम्हारे लिए चिट्ठी है और तुम्हें ना बताना ही उनकी आखिरी ख्वाहिश थी," इतना कहकर उन्होंने मुझे चिट्ठी थमा दी, चिट्ठी में मेरे बचपन के उस चुराए हुए गुलाब की पंखुड़ी भी थी (आपको लग रहा होगा कि मुझे कैसे पता कि यह वही गुलाब है, इसका जिक्र भी मेरी मां अक्सर किया करती थी, शांतनु यह गुलाब मैं हमेशा अपने पास रखूंगी यह मुझे यह याद दिलाएगा की तुम से बढ़कर मेरे लिए कोई नहीं, इसी गुलाब के लिए मैंने तुम्हें बहुत मारा था और तुम मानो या ना मानो उस दिन मुझे एहसास हुआ कि तुम मेरे लिए कितने जरूरी हो, तुम्हें डांट फटकार ने के बाद मेरा जी मचलता रहा मैंने सोचा एक इतनी सी बात पर इतनी नन्ही सी जान को मैंने इतना कैसे मारा और मैं बहुत रोई थी, और यह एहसास मुझे आज तक किसी के लिए नहीं हुआ ना तुम्हारे पिताजी के लिए ना मेरे पिताजी के लिए ना किसी और के लिए शायद मां का दिल अलग ही होता है इसीलिए मैं गुलाब संभाल के रखूंगी", पर मुझे नहीं पता था की मां सच में यह गुलाब रखेंगी।) मैंने भरे मन से चिट्ठी पढ़ने की कोशिश की आंखों के सामने धुंध था और उसी दिन से मैंने कुछ यह पढ़ा,"जब तक फूल अपने पेड़ से जुड़ा रहता है तू बूढ़ा होकर दिन पूरे कर कर मर जाता है और तोड़ दिए जाने पर उसकी आयु अपने आप कम हो जाती है मैं बस वही गुलाब बन गई थी पर तू रोना मत मैं फिर भी इधर खुश थी बस दुख इस चीज का था कि मैं इस लायक नहीं थी कि बेटे के साथ रह सकूं शायद मैंने बहुत मारा था तुझे उस दिन इसलिए गुलाब के फूल को तोड़ने पर मैं बहुत रोई भी थी बाद में और इस गुलाब को यादों के लिए रख लिया, तुझ से कहती थी ना यह गुलाब में हमेशा पास रखूंगी मैंने चिट्टियां लिखना बंद कर दिया था क्योंकि मुझे लगा शायद अब तुझे मेरी जरूरत नहीं है अब मुझे तेरे ध्यान रखने की जरूरत नहीं है शायद अब मेरे फटकार की भी तुझे जरूरत नहीं है अब तो बड़ा हो चुका है समझदार है बस इसी में मेरी खुशी थी बार-बार चिट्ठी लिखकर मैं तुझे बहुत परेशान करती थी तो सोचा कम कर दूं, पर आज चिट्ठी में यह गुलाब तुझे दे जा रही हूं सिर्फ तुझे इतना बताने कि तू मेरे लिए आज भी मेरा वही 8 साल का शांतनु है जो बागों से फूल चुरा कर लाया करता था और मेरे डांटने पर भी कभी मुझसे रूठा नहीं करता था मैं आज भी तुझे उतना ही प्यार करती हूं आज मैं जहां पर भी हूं वहां पर भी खुश ही हूं और तेरी खुशी में ही मेरी खुशी है अपने आप को कभी दोष मत देना और हो सके तो इस गुलाब की पंखुड़ी को समेट के रख लेना अब मैं खुद को समेट रही हूं तेरी मां।

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